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नक्सली हिंसा हिंसा न भवति
हाल के दिनों में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी ने कश्मीरी आतंकियों का समर्थन करके इस बात पर मुहर लगा दी है कि उनके रिश्ते आईएसआई से गहरे हैं और इन्हें वहां से भी मदद मिल रही है। लिट्टे और नक्सलियों के रिश्ते पहले उजागर ही थे। अब जो जानकारी सामने आ रही है वह और खतरनाक है कि माओवादियों को हथियार इस्लामी आतंकियों से मिल रहे हैं। दरअसल भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन सदा से ही दिग्भ्रमित रहा है। कभी इन्होंने चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन का नारा लगाया, तो कभी ये कांग्रेस के साथ केंद्र में हाथ मिला कर तत्कालीन सोवियत यूनियन को फायदा पहुंचाने के लिए दबाव की राजनीति करते रहे।
पंजाब में पत्रकारिता के दौरान जो नक्सली गुट संपर्क में आये, उनसे बातचीत में ऐसा लग रहा था कि जैसे वे दुनिया को बदल देने के सिद्धांत को अमल में लाकर रहेंगे। उन्हीं दिनों गदर आंदोलन के जिंदा शहीद बाबा भगत सिंह बिलगा से प्रेरित पंजाब में कार्यरत एक साम्यवादी विचारधारा के संगठन लोक मोर्चा के महासचिव अमोलक सिंह ने वर्ष 2004 में मुझसे एक सवाल किया था कि आप इन नक्सलियों से पूछिये, इन्होंने पंजाब के आतंकवादियों का समर्थन क्यों किया? इनकी लाइन आफ एक्शन क्या है? क्या चाहते हैं ये? सत्ता या बदलाव? फिलहाल इन सवालों के जवाब अनुत्तरित थे, और अनुत्तरित हैं, क्योंकि बिना सिद्धांत के जब धन बटोरा जाने लगता है, तब ये बातें गौण हो जाती हैं? तब सिद्धांत चंबल के बीहड़ के डकैतों की मानसिकता से स्वयं को थोड़ा अलग करने के लिए केवल आड़ बन जाते हैं।
फैजाबाद में तैनात एक बड़े प्रशासनिक अधिकारी, जो कभी प्रगतिशील छात्र संगठन (पीएसओ बाद में आईसा) थे, उन्होंने भाकपा माले (लिबरेशन गुट) के एक कार्यकर्ता से अपने पुराने जुड़ाव का हवाला देते हुए कहा कि तुम कुछ कलेक्शन की योजना बनाओ, पार्टी के लिए फंड एकत्रित कर लो। काम को आगे बढ़ाओ। उस साथी ने कहा, ऊपर पूछे लें। बात आगे बढ़ी और ऊपर तक पहुंची। साफ कह दिया गया कि ऐसा धन भले ही शीघ्र व अल्प श्रम से मिल जायेगा, लेकिन उससे काम आगे बढ़ने की जगह नष्ट हो जायेगा। पार्टी कलेक्शन के लिए तो बनाई नहीं गयी है, पार्टी बनाने का उद्देश्य तो ऐसे लोगों को तैयार करना है, जो हमारी विचारधारा और सिद्धांतों पर खरे हों। बाद में एक बड़े पदाधिकारी ने यह भी कहा कि ज्यादा दर्द है तो कह दो नौकरी छोड़ कर पार्टी में आ जायें। बाहर से बैठ कर ज्यादा सिद्धांत की सूझती है।
ये दो पहलू हैं। दो रंग हैं। इन दो बातों से ही साफ है कि कहां, क्या अंतर है, क्या अंतर्विरोध हैं, क्योंकि दूसरी तरफ दिशाहीन माओवादी हैं, जो बिल्कुल अलग तरह के विचार रखते हैं, वाम दलों में खासतौर से जो सत्ता में हैं और रहे हैं, उनमें और सत्ता के बाहर के वाम दलों में यह अंतर नजर आता है। माओवादियों को मैं सत्तासीन ही मानता हूं, क्योंकि उनकी एक समानांतर सत्ता तो चल ही रही है, उसके लिए जैसे सरकार के पास सारे संसाधन मौजूद हैं, वैसे ही इनके पास भी हैं, भले ही वे सरकार की तुलना में अल्प हों। दस हजार गुरिल्ला की फौज कम नहीं होती, जो सरकार को बेबस करने के लिए पर्याप्त हैं। लोकतांत्रिक रूप से सत्ता में बैठे वामपंथियों का सच सिंगूर और नंदीग्राम में समाने आ चुका है। केरल में आरएसएस के स्वयंसेवकों व भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या का सिलसिला इसी तरफ इंगित करता है।
झारखंड में बतौर रिपोर्टर काम के दौरान यह बात साफ हो गयी कि माओवादी किसी वाद-आद के चक्कर में नहीं हैं, बल्कि अब वे केवल कैसे ज्यादा से ज्यादा लेवी वसूली जाये, लोगों को डरा-धमका कर अपना प्रभुत्व कायम रखा जाये, इस सिद्धांत पर चल रहे हैं, क्योंकि ऐसा न होता, तो वे भ्रष्ट इंजीनियरों, ब्लाक डेवलपमेंट अफसरों और ठेकेदारों से लेवी क्यों वसूलते? उनके खिलाफ संघर्ष क्यों करते। वैसे यह सूचना भी है कि माओवादियों की धमक इतनी है कि वे देश के उन बड़े औद्योगिक घरानों से भी लेवी वसूलते हैं, जिनकी परियोजनाएं उनके प्रभाव क्षेत्र में हैं या फिर लगने वाली हैं। जो उनके हिसाब से नहीं चलते, तुरंत उनके खिलाफ आंदोलन खड़ा हो जाता है, रातो-रात संबंधित परियोजना के विरोध में एक संगठन का जन्म हो जाता है? धरना-प्रदर्शन चलने लगता है, जो सप्रयास हिंसक हो जाता है, जिसमें भोले-भाले आदिवासी मारे जाते हैं और फिर शुरू हो जाती है जांच की प्रक्रिया, नतीजतन परियोजना खटाई में पड़ जाती है।
यहां मैं यह नहीं कहना चाहता कि ये औद्योगिक घराने दूध के धुले हैं, न ही उनकी पैरोकारी की कोई मंशा है, लेकिन जो सच है, वह सच है।
पूरे मामले में एक दूसरा अहम पहलू यह है कि नक्सलवाद या माओवाद के लिए जिम्मेदार कौन है?
आज सरकारें (मेरा मतलब केंद्र और राज्य सरकारों दोनों से है) कह रही हैं कि नक्सली क्षेत्र में डर के मारे कोई जाना नहीं चाहता, कोई काम नहीं करना चाहता। सवाल यह है कि एक या दो दशक पहले वे कहां थीं, तब तो नक्सलवाद का इतना खौफ नहीं था और न ही इतना विस्तार। 1980 में तो दोबारा मुप्पाला लक्ष्मण राव (गणपति), गुमांडी विट्ठलराव (गदर) जैसे गिने-चुने नक्सलियों ने दोबारा काम शुरू किया। एमसीसी, न्यू डेमोक्रेसी, आईपीएफ (अब सीपीआईएमएल लिबरेशन) अलग-अलग थे। कहीं कोई तालमेल नहीं था। तब सरकार को इन क्षेत्रों की याद क्यों नहीं आयी, जो आज रोना हो रहे हैं। सच तो यह है कि सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बचती रही हैं, चाहे कश्मीर हो या फिर पंजाब, झारखंड हो या फिर पूर्वोत्तर भारत के राज्य, सरकारों ने या तो किया ही कुछ नहीं या फिर उन्हें इमदाद पर रख छोड़ा, अर्थ तंत्र विकसित नहीं होने दिया, अब खाली दिमाग शैतान का घर, सो पूरा पूर्वोत्तर जल रहा है, आंध्र प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल का उड़ीसा व झारखंड से लगा क्षेत्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा का एक बड़ा हिस्सा, कर्नाटक, महाराष्ट्र का कुछ हिस्सा, बिहार, उत्तर प्रदेश का झारखंड व बिहार से सटा इलाका, मध्य प्रदेश का छत्तीसगढ़ के निकट का क्षेत्र कुल मिला कर देश के 165 जिलों में नक्सलियों का प्रभाव है। बीते तीन साल के आंकड़े ये हैं कि तकरीबन तीन हजार लोग नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं। कश्मीर शांत नहीं है। यानी आधे भारत में कोई न कोई समस्या है और इस्लामी आतंकवाद ने पूरे देश को हलकान करके रख दिया है। फिर भी सरकारों की चिन्ता अपनी गद्दी की है और कहां कौन उनके लिए मुफीद है, वे इस पर ध्यान देती हैं, न कि देश के लिए कौन खतरा है, इस पर। चाहे वह बांग्लादेशी घुसपैठियों का सवाल हो या फिर मुस्लिम तुष्टीकरण का। झारखंड के चुनाव में तो यह बात आम है कि किस प्रत्याशी को कौन सा नक्सली गुट समर्थन कर रहा है, तो उसकी जीत निश्चित है। यही नहीं चुनाव के दौरान नेताओं तक से नक्सली लेवी वसूल ले जाते हैं, ताकि उनके क्षेत्र में शांतिपूर्वक वोट पड़ सके। इस मनबढ़ई के लिए कौन जिम्मेदार है। कुल मिला कर सरकार, क्योंकि वहां पर तो ऐसे ही लोग चुन कर गये हैं, जिन्हें इस तरह के समझौते अपनी जीत के लिए करने पड़े हैं।
यह बात साफ है कि इस समस्या से लड़ने के लिए एक ही मोर्चा काफी नहीं है। बुद्धिजीवियों में इनकी सेंध भी तगड़ी है। देश में इंटेलेक्चुअल पैदा करने की फैक्ट्री का दर्जा प्राप्त जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सीआरपीएफ के सिपाहियों के मारे जाने पर जश्म मनाया गया। यह क्या था। क्या किसी की मौत खुशी का विषय हो सकती है, लेकिन यह तो दिल्ली में केंद्र व राज्य सरकार की नाक के नीचे हुआ। साहित्यकारों का एक बड़ा खेमा इनकी हिमायत करता है और मानवाधिकार संगठनों में तो उनका वर्चस्व है।
ऐसा इस वजह से संभव हो रहा है क्योंकि हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है हमारी पुलिस।
नक्सलवाद या नक्सली हिंसा या माओवादी आतंकवाद बनाम पुलिस दमन। ये शब्द आते ही मीडिया यानी संचार माध्यमों के सामने दुविधा खड़ी हो जाती है कि वे किसके साथ खड़े हों। भारतीय समाचार जगत का विकास खासतौर से जिसे स्वयं को राष्ट्रीय कहने वाले अंग्रेजी अखबार भाषायी या इलाकाई पत्रकारिता कहते हैं, वह सत्ता विरोधी मानसिकता का है। जैसे ही पुलिस दमन की बात आती है, वही सत्ता विरोधी कीड़ा कुलबुलाने लगता है और हमारी कानून-व्यवस्था भी ऐसी है कि आज तक अंग्रेजी हुकूमत की मानसिकता से उबर नहीं पायी है, भ्रष्टाचार की गहरी होती जड़ें उसे और अविश्वनीय बनाती जा रही हैं। नतीजतन नक्सलवादियों को मानववादी प्रतिकार का मुखौटा लगाने का मौका हासिल है। कुछ बिन्दु गौर करने लायक हैं, जिनकी वजह से मीडिया ही नहीं, बल्कि बुद्धिजीवी वर्ग का एक तबका अक्सर कहीं न कहीं नक्सलवाद के पक्ष में खड़ा नजर आता है। जैसे-
-पुलिस दमन होने पर वे किसके पक्ष में खड़े हों, पुलिस के पक्ष में खड़े हो जायें तो बर्बरता के साथी बन जायें, विरोध करें तो नक्सली कहलायें।
-पिछड़े क्षेत्रों पूर्वोत्तर भारत, वनवासी क्षेत्र तक सरकारी सुविधाएं न पहुंचने के मुद्दे और उनके पिछड़ेपन के सवाल पर मीडिया और बुद्धिजीवी क्या सरकार की सालों-साल की उपेक्षा के पक्ष में खड़ा हो जाये, या फिर कहे कि जंगल के लोगों को अभी भी पत्ता पहन कर ही रहना चाहिये। जब ये मुद्दे उठते हैं, उनके शोषण की बात आती है, मानव तस्करी और मानव अंगों के व्यापार में इन क्षेत्र के लोगों को इस्तेमाल करने की बात आती है तो मीडिया किसके साथ खड़ा हो? शोषण हो रहा, मानव तस्करी चल रही है, प्रशासन और कथित सत्ताधारी आज भी आंख मूंदे हुए हैं, मीडिया बेबस हो कर उन जन संगठनों की हां में हां मिलाने को मजबूर होता है, जो स्वयंसेवी संस्था या गैर सरकारी संगठन का चोला ओढ़े परोक्ष में नक्सली आंदोलन के ही अंग हैं।
-क्या सामंतवादी जुल्म, वन माफियाओं के तंत्र पर सरकार ने काबू पा लिया है? क्या श्रमिकों के शोषण के मामले में श्रम विभाग चेतन कार्रवाई कर रहा है और उन्हें वाजिब मजदूरी दिलाने का मजबूत तंत्र विकसित हो गया है? सरकार श्रम नियमों के मामले में औद्योगिक समूहों और व्यापारिक घरानों और बहुराष्ट्रीय निगमों के सामने हाथ बांधे नहीं खड़ी है, ऐसे में जब केवल नक्सलियों के समर्थक श्रमिक संगठन ही सवाल खड़े कर रहे हों तो मीडिया क्या करे?
ये बिन्दु दुविधा ही पैदा करते हैं, जिनकी आड़ में बड़े साहित्यकार लगातार नक्सली हिंसा का समर्थन सारी जिन्दगी करते रहे और अब जब पानी सिर के ऊपर गुजरने लगा तो कह दिया कि हम तो आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठा रहे हैं, न कि नक्सलियों के समर्थन में। यही हाल मानवाधिकार संगठनों और मानवाधिकार वादियों का है, जो मानवाधिकार के नाम पर प्रतिहिंसा का ही समर्थन करते रहते हैं। हम उनके बारे में तब तक न कुछ कह पाते हैं और न ही कर पाते हैं, जब उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई न हो जाये। यह दुविधा ही है। मजबूरी ही है।
पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में भूमिहीनों और जमींदारों के बीच संघर्ष से उपजे संगठन का मूलस्वरूप तो अब जाने कहां गुम हो गया है। नक्सलवाद के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उसे देखते हुए यह तय करने की जरूरत है कि इन्हें नक्सली कहा जाये या माओवादी आतंकी। यह विमर्श का विषय हो सकता है, लेकिन ऐतिहासिक तथ्य यही है कि खालिस्तान समर्थकों ने भी स्वयं को खाड़कू कहे जाने का फरमान जारी किया था और इस्लामी आतंकी भी अपने को आतंकी नहीं जेहादी कहलाना ही पसंद करते हैं।
हिंसा के सबके अपने तर्क हैं। सच यह है कि हिंसा किसी समस्या का हल नहीं हो सकती। जितने लोगों ने माओवादी हिंस्र आंदोलन में अपनी जान गंवायी है, उतने लोगों ने अहिंसात्मक रूप से आंदोलन करते हुए प्राणों की आहुति दी होती तो नजारा दूसरा होता। प्रतिहिंसा शब्द इस तबके का सबसे मशहूर तकिया कलाम है। वे कहते हैं कि हम हिंसा नहीं, प्रतिहिंसा करते हैं। इनकी प्रतिहिंसा में जिन्हें ये वर्गशत्रु कहते हैं, वे एक भी नहीं मारे गये, इनकी हिंसा की भेंट चढ़े गरीब घरों के लड़के, जो सीआरपीएफ, पीएसी, सेना में अपना पेट पालने के लिए, घर को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिए गये थे। महाभारत की तरह दोनों तरफ अपने ही हैं। एक तरफ माओवादियों के साथ खड़े होने को मजबूर आदिवासी, तो दूसरी तरफ गांव की गरीबी से जूझने वाले परिवारों के बच्चे। सीआरपीएफ के जवान भी उसी वर्ग के हैं, जिनके लिए कथित माओवादियों ने तथाकथित आंदोलन चला रखा है। कौन किसके खिलाफ खड़ा है, कौन किसे इस्तेमाल कर रहा है, यह तय करने की जरूरत है। क्योंकि सर्वहारा की सत्ता का सपना दिखा कर हिंसा का नशा पैदा किया जा रहा है औऱ माओ का ध्येय वाक्य सत्ता बंदूक की नली से निकलती है उनके जेहन में भरा जा रहा है।
सरकार के सामने माओवादी एक बड़ी चुनौती हैं, लेकिन सरकार का रवैया अजब है। वह न तो सेना भेजने को तैयार है और न ही उनसे बात करने को। खैर बात करने की जरूरत है ही नहीं, क्योंकि जब भी उनसे बात करने की कोशिश की गयी है और बात का मौका दिया गया है, उन्होंने इस दौर को स्वयं को मजबूत करने के लिए प्रयोग किया है। जितनी बात हुई, उतना वे मजबूत हुए। वे केवल चकमा दे रहे हैं। उन पर सीधी कार्रवाई हो और यह बात साफ हो कि इन कथित माओवादियों ने माओवाद और सर्वहारा संघर्ष के नाम कितनी संपत्ति जुटा रखी है, और कैसे ऐशो-आराम कर रहे हैं। क्योंकि झारखंड में तो एक आम चलन है, जो नक्सली लेवी की खासी रकम दबा लेता है, वह धीरे से स्वयं ही पुलिस के पास जा पहुंचता है, फिर उसकी गिरफ्तारी का नाटक रचा जाता है और उसे सरकारी हिफाजत मिल जाती है, वह महफूज और मालामाल हो जाता है। पुलिस को भी कुछ हासिल हो ही जाता है।
इसे रोकने के लिए सरकार को अपना नजरिया साफ करना होगा और ऐसे इस तरह के सत्य सामने लाने होंगे, ताकि जो जन समर्थन इन्हें हासिल है, वह खत्म हो, ये तो अपने-आप खत्म हो जायेंगे।
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