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भारतीय लोकतंत्र की सबसे कमजोर कड़ी राजनेता-अपराधी गठजोड़

अभिव्यक्ति
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भारत दुनिया का सबसे लोकतंत्र है। प्रत्येक आम चुनाव के बाद हम लोकतंत्र मजबूत होने की दुहाई देते हैं और कहते हैं कि जनता का फैसला सिरमाथे। जनता का फैसला सिरमाथे होना भी चाहिए। दरअसल सत्ता हासिल करने की हड़बड़ी में ही सारी गड़बड़ी हो रही है। ऐसा लगता है कि इस देश के राजनैतिक दलों का जनता पर कोई भरोसा नहीं है और न ही जनता को राजनैतिक दलों पर। यह बात तो सही हो सकती है कि जनता का राजनैतिक दलों पर भरोसा नहीं है, क्योंकि वह हर बार छली गयी है, छली जाती है और जैसा परिदृश्य उभर रहा है उसे इस छलना से मुक्ति मिलती नजर नहीं आती। आजादी मिलते ही जैसा कांग्रेस कि वाजिब भी था कांग्रेस सत्ता में आयी। 1952 के आम चुनाव में ही कांग्रेस ने सत्ता में बने रहने के लिए छल-कपट का सहारा लेना शुरू कर दिया, क्योंकि एक विपक्ष सामने आ चुका था। इंदिरा गांधी के सत्तासीन होने के साथ कांग्रेसी गुंडाराज चरम पर पहुंच गया। किसी तरह से सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी कर गुजरने से परहेज न करने वाले दल के रूप में कांग्रेस का चेहरा सबके सामने आया और 1975 में आपातकाल इसकी बीभत्स परिणति थी। इस बीच प्रमुख विपक्षी दलों के रूप में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी, भारतीय क्रांति दल, प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी, भारतीय जनसंघ जैसे दल उभर कर सामने आये। समाजवादी दल एक तरफ जहां मुस्टंडई के हिमायती हो चले थे, तो कांग्रेसी गुंडई के। कांग्रेस अपराधियों की शरणस्थली बनने लगी थी और सोशलिस्ट पार्टी में भी मुस्टंडई बढ़ने लगी थी, जिसका एक स्वरूप बाद में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के रूप में सामने आया। यानी यह तस्वीर साफ हो गयी कि चुनाव जीतने के लिए गुंडई और मुस्टंडई के अलावा कोई चारा नहीं है, जनता का भरोसा जीतने के बजाय इलाकाई दबंग को अपनी तरफ कैसे किया जाये, जातीय समीकरण कैसे बैठाये जाएं कि क्षेत्र या जाति विशेष का वोट अपनी झोली में आ जाये। जिस जनता ने जनता पार्टी को वोट देकर 1977 में इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंका, वही जनता 1980 में उनके साथ हो गयी, क्योंकि उसे समझ में आ गया कि दोनों में कोई फर्क नहीं है। इसके बाद जब रामजन्मभूमि आंदोलन का उभारा आया तो भाजपा का शासन सत्ता का रास्ता प्रशस्त हुआ और उन्होंने भी जनता का भरोसा जीतने की जगह ब्रज भूषण शरण सिंह और चुलबुल सिंह की ओर रुख कर दिया। ये कितने स्थायी हैं, यह बात हाल के दिनों में साफ हो गयी कि इनका एक ही दल है, वह है सत्ता दल। जब जनता पर भरोसा ही नहीं है और जनता वोट करना नहीं जानती, और वह इलाकाई समीकरण से ही देश व प्रदेश के लिए नुमाइंदा चुनती है, तो चुने गये जन प्रतिनिधि भी उसे घास नहीं डालते और मनमाने फैसले करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि वोट कैसे मैनेज किये जाते हैं, वर्ष 2009 का चुनाव इसकी मिसाल है कि जब यूपीए से जनता त्रस्त थी, और महंगाई से उसका जीना हराम हो चुका था, तब भी वह दोबारा सत्ता में आ गयी।
भले ही तब बहुजन समाज पार्टी का दायरा एक-दो प्रदेश (उत्तर प्रदेश व पंजाब) तक सीमित रहा हो, लेकिन इसके उभार को जन उभार के रूप में देखा जा रहा था। यह पार्टी 1980 में बनी और बहुत जल्दी ही इसके उम्मीदवार खासी तादाद में वोट पाने लगे। ये वे मत थे, जो पहले कोई न कोई दल किसी न किसी रूप में मैनेज करता था, यानी दलित समुदाय के वोट। इन वोटों की राजनीति वामपंथी भी करते रहे। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने जो सबसे बड़ा काम किया, वह यही था कि दलितों में मताधिकार की चेतना पैदा हुई और महज दस साल में वह उत्तर प्रदेश की राजनैतिक मोल-तोल की हैसियत में पहुंच गयी, लेकिन सत्ता के करीब आते-आते इस दल को भी अपने मतों पर भरोसा धीरे-धीरे कम होता चला गया। नतीजा बसपा में दबंगों की भरमार हो गयी। अंत में एक स्थिति यह बनी कि एक सवर्ण जाति को भी जोड़ने की मजबूरी ने इसे जकड़ लिया और बाबा का मिशन सत्ता के नशे में हिरन हो गया।
सत्ता में कौन है, सत्ता में कौन रहेगा, सत्ता जनता के प्रति जवाबहेद होगी, यह तय करना जनता की जिम्मेदारी है। मानव मुक्ति की बात करने वाले वामदलों का मूल आधार जनता का भरोसा न होकर लाल गुंडई व दबंगई ही रहा है। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की हरमद वाहिनी इसका जहां उदाहरण है, वहीं केरल में निरंतर जारी आरएसएस प्रचारकों की हत्या इसकी पराकाष्ठा के रूप में सामने है।
बहुजन समाज पार्टी की स्थापना जिन उद्देश्यों और जरूरतों के लिए हुई थी, अब वे ताक पर रख दिये गये हैं। मान्यवर कांशीराम ने इस दल का गठन ठीक उसी तरह से पांच लोगों के साथ किया था, जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा मात्र पांच स्वयंसेवकों से शुरू हुई थी। उनके बामसेफ के साथियों को भरोसा ही नहीं था कि दलित समुदाय कोई राजनैतिक शक्ति खड़ी कर सकता है, लेकिन मान्यवर के सतत परिश्रम और दलित समुदाय के एक जुझारू तबके ने यह लक्ष्य हासिल करके दिखा दिया। इस वर्ग ने असह्य सामाजिक प्रताड़ना झेली, इलाके में जातीय राजनीतिक के ठेकेदारों का कहर झेला, उत्पीड़न के शिकार हुए, लेकिन लक्ष्य से नहीं भटके। यह बात समझ से परे है कि कब और कैसे यह सोच इस दल में घर कर गयी कि सवर्णों वह भी सवर्ण दबंगों के बिना सत्ता हासिल करना मुश्किल है। इस असंगत गठजोड़ की वजह से जो होना था, वही हुआ। अंततः दलितों की हालत और बदतर हो गयी। अब वे सीधे सवर्ण दबंगों के निशाने पर हैं। कन्नौज व रमाबाई नगर में दलित रसोइया द्वारा बनाये भोजन का बहिष्कार करना शायद उसी मानसिकता को अभिव्यक्त करने की, पुनर्स्थापना की एक घिनौनी साजिश के रूप में सामने है। यह तब हो रहा है, जबकि हम २१ सदी के अति प्रगतिशील युग में हैं, यह तब हो रहा है, जब एक लंबी कवायद के बाद जातीयता की बेड़ियां कमजोर हो रही थीं, यह तब हो रहा है, जब हम विश्व के सबसे तेजी से विकासित हो रही आर्थिक ताकत कहलाने के हकदार हो चुके हैं और केवल सरकारी आंकड़े की बात न भी करें तो भी हम उस दिशा में बढ़ रहे हैं। हमारा जातीय आग्रह बढ़ता जा रहा है। हमारे बच्चे इसकी भेंट चढ़ रहे हैं। बहुत सीमित रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने वाली सरकारी नौकरी के व्यामोह ने हमें फिर से अंधा कर दिया है। देश एक बार फिर उस विभाजन की तरफ बढ़ रहा है, जिसके बीज अंग्रेज बहुत पहले बो कर चले गये। एक राष्ट्र, एक जन की बात ही खत्म होती जा रही है। जातीय जनगणना की बात भी उस बृहद साजिश का हिस्सा है, जो इस देश की प्रतिगामी शक्तियां अंजाम देने में लगी हुई हैं। पहले हिन्दू मुसलमान को लड़ाया गया, फिर सिख और हिन्दू को अलग करने की कोशिश की गयी। अब जातीयता का जहर अधिक तीखा करने की कोशिश हो रही है। पीस टीवी जो इस्लाम की शिक्षाओं का व्याख्या को लेकर एक समुदाय विशेष में खासा लोकप्रिय है, उसके एक कार्यक्रम में एक मुस्लिम विद्वान से जब यह पूछा गया कि क्या कुरआन गैर इस्लामी समुदाय के लोगों को दी जा सकती है, तो उन्होंने जवाब दिया कि कुरआन को केवल इस भय से दूसरों को न देना उचित नहीं कि वे उसकी बेहुर्मती करेंगे। उन्होंने हिन्दुओं को कुरआन देने में कोई हर्ज नहीं होने की सबसे बड़ी जो वजह बताई वह यह कि ये लोग तो धार्मिक भावनाओं का इतना आदर करते हैं कि यदि उन्हें यह बता कर कुरआन दी जाये कि यह एक पवित्र और धार्मिक पुस्तक है, तो वे उसे ज्यादा आदर और सम्मान से रखेंगे। इसकी बेहुर्मती कतई नहीं होने देंगे। यानी अभी यह विश्वास कायम है, कि हममें भाईचारा शेष है, जिसे तार-तार करने की कोशिश की जा रही है।
कौन कर रहा है, यह सब, तो बात साफ है कि ये वही लोग हैं, जो गुलामी के दिनों में अंग्रेजों की हिमायत कर रहे, बादशाहों के दरबार में कोर्निश बजाते रहे, फर्शी सलाम ठोंकते रहे, अपने ऐश-आराम का इंतजाम मुकम्मल करते रहे, और अब भी वे सत्ता के करीब बने रहना चाहते हैं। राजनैतिक दलों में उनकी पहुंच है, वे वोट की ठेकादारी करते हैं, चुनाव को इन्हीं ठेकेदारों ने खासा महंगा बना दिया है, और यह तकरीबन तय कर दिया है कि बिना धन के राजनीति करना ही मुश्किल है। जबकि यह सत्य नहीं है। बीते आम चुनाव में कई ऐसे प्रत्याशी हैं, जो बिना किसी तामझाम के बहुत कम खर्च में लोकसभा में पहुंचे। इसी चुनावी खर्च ने सत्ता को ज्यादा भ्रष्ट बनाया, और सत्ता की आम आदमी के प्रति जवाबदेही और ज्यादा निजीकरण ने नौकरशाही को भ्रष्टाचार के लिए प्रेरित किया। आधुनिक जीवन शैली ने इसे और हवा दी और बसपा जैसी पार्टी धन उगाही की मशीन बन गयी, जहां छोटे कर्मचारियों के चंदे से ही सारा काम होता था। सही मायने में देखा जाये और पूछा जाये कि क्या चुनाव में खर्च करने की जरूरत है, तो जवाब ना में होगा, क्योंकि आपके पास कार्यकर्ता हैं तो आपको खर्च करने की जरूरत ही नहीं और ना ही गुंडों और दबंगों की। आखिर जिस वोट के बल पर बसपा की राजनैतिक हैसियत बनी, क्या वह दबंगई करने की स्थिति में थी। नहीं थी और उसने साहस करके इलाकाई गुंडई को झेलने की हिम्मत जुटा कर और यह जानते हुए भी वोट डाले कि हमारा उम्मीदवार अभी सालों-साल नहीं जीतने वाला है। मुझे पूरी तरह से याद है कि जब बहुजन समाज पार्टी का प्रत्याशी कहीं से गुजरता था तो लोग कहते थे कि लो हथिया वाला आ गया। जिस हाथी ने सालों-साल किसी की परवाह नहीं की, वह अचानक कैसे उन्हीं की परवाह करने लगा। उसने चाल ही बदल डाली। सुन लो मेरा इशारा, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनेंगी माया बहन दोबारा का इशारा उसने समझा और झूम कर वोट किया। दिल्ली-मुंबई, नागपुर, नासिक, लुधियाना, अमृतसर में दिहाड़ी करने वाले केवल वोट डालने के लिए लागत लगा कर घर आने लगे कि हमारा वोट कम न हो जाये, उसकी सजा उन्हें इस रूप में मिली कि बसपा पर माफियाओं की पार्टी होने का धब्बा लग गया। पहले मुख्तार अंसारी, अतीक का बोल-बाला रहा, तो अब ब्रजेश सिंह की पत्नी बसपा के टिकट पर विधानपरिषद में पहुंच गयी। छोटे-मोटों की गिनती की जाये तो यह फेहरिश्त और लंबी होती चली जायेगी। अरे चार सीट कम ही तो आयेगी, तो क्या बिगड़ जायेगा, लेकिन जब आप अपने आधार वोट के हितों की रक्षा नहीं कर पायेंगे, तो एक न एक दिन यह आधार खिसकना तय ही है, आखिर यह आधार कभी कांग्रेस और कम्युनिष्टों के पास था ही। जब वहां से राहत नहीं मिली, तब उसने एक विकल्प के रूप में बसपा को चुना, केवल यूपी ही नहीं, दिल्ली और मध्य प्रदेश में भी बसपा को खासे वोट मिले हैं। दूसरी बात इस दल को ध्यान में रखनी होगी कि धन से राजनीति करना संभव नहीं है, अन्यथा इस देश के पूंजीपतियों के एक-एक दल होते और वे ही देश की सत्ता पर काबिज होते, क्योंकि इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनका सालाना बजट तो भारत सरकार के बजट से भी ज्यादा होता है। यह ठीक है कि पार्टी चलाने के लिए धन चाहिए होता है, और बसपा अपने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं पर खासा धन व्यय करती है, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए जिन आदर्शों की नींव पर वह टिकी है, उस पर टिकी रहे और अपनी भूलें सुधार ले, तो लोकतंत्र के इतिहास में वह एक ऐसा दल साबित होगी, जो लोकतांत्रिक चेतना को विकसित करने की मिसाल के तौर पर जाना जायेगा।
फिर हम केवल बसपा से ही आशा क्यों पालें। कभी जनसंघ ने चना-चबैना खाकर इस हैसियत में लाकर खड़ा कर दिया कि उसने दो बार देश का नेतृत्व किया। अब पैसा नहीं मिलता को इस पार्टी का बस्ता कई बूथों पर नहीं लगता। क्या रोग लग गया। क्या वे दिन भूल गये, जब बूथों पर लगे कार्यकर्ताओं के लिए भोजन भी आसपास के गांव व मोहल्ले के घरों से बन कर जाता था। जनसंघ के कार्यकर्ता से लोग आंख मिला कर बात नहीं कर सकते थे, क्योंकि वह बिना किसी अपेक्षा-आकांक्षा के काम करता था। क्यों हम भ्रष्टाचार की जननी कांग्रेस के पदचिह्नों पर चलने लगे। हमारे जन प्रतिनिधि क्यों जनता के प्रति जवाबहेद न हो कर चंदा देने वालों के चाकर हो गये। क्षेत्र की प्राथमिकताओं को त्याग कर वे क्यों कमीशनबाजी में लग गये, सांसद व विधायक निधि, तो भ्रष्टाचार की पाठशाला बन गयी। जिला योजना की बैठक में विधायक और सांसद की मौजूदगी कमीशन तय करने भर की रह गयी है। अब यह काम वे खुद नहीं करते, उनके प्रतिनिधि ही बैठकों में जाते हैं और ‘सबकुछ’ तय कर आते हैं। इनसे क्या उम्मीद की जाये। कुछ जगहों पर तो इनका संगठन एक आदमी की जेब से ही चल रहा है। कई ने तो यह हाल कर दिया है कि उनके पेड वर्कर जगह-जगह काम कर रहे हैं, ठेके-कोटे-पट्टे में उनकी पत्तीदारी है।
एचडीएफसी के चेयरमैन की टिप्पणी इस संदर्भ में काबिलेगौर है। उन्होंने हाल ही में एक प्रेस कान्फ्रेंस में कहा है कि लोगों के घर का सपना केवल इसलिए टूट रहा है, क्योंकि रीयल इस्टेट और इन्फ्रास्ट्रक्चर के धंधे पर बिल्डरों और राजनेताओं का गठजोड़ कब्जा किये बैठा है। इस वजह से न केवल जमीन महंगी हुई है, मकान भी महंगा हो गया है।
अब समस्याएं तो स्पष्ट है, निदान वही कर सकता ह

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