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भोपाल गैस त्रासदी बनाम महंगाई

अभिव्यक्ति
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भारत में अचानक कुछ समस्याएं बड़ी नजर आने लगती हैं, और कुछ तत्काल छोटी, प्राथमिकताएं पल-पल बदलती रहती हैं। नक्सल समस्या खासतौर से छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में ज्यादा हिलोरे ले रही है, तो अचानक कश्मीर घाटी फिर से अशांत हो चली है। पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि का फैसला जिस गति में हुआ, उससे साफ है कि फैसला अचानक हो गया। इन घटनाओं के निहितार्थ तलाशने जरूरी हैं। बहुत सी बातें को विपक्ष कहता है और कहता रहेगा, जो कहना है, वह कहते नहीं। दरअसल यूनियन कार्बाइड मामले में फैसला आना है, यह तो सबको पता था। फैसला आते ही मिस्टर क्लीन (हम सबके राजीव गांधी और सोनिया जी के रजीव जी) की भूमिका पर सीधे सवाल खड़े हो गये। सवाल घुमाया गया और अर्जुन सिंह को निशाने पर ले लिया गया। यह बात साफ है कि इतना बड़ा फैसला अर्जुन सिंह ने अकेले नहीं किया होगा, ऊपरी आदेश ही वे पालन करते रहे होंगे। मामला तूल पकड़ रहा था। और पकड़ना स्वाभाविक ही था, सैकड़ों लोगों की मौत का सवाल था, हजारों की जिन्दगी बर्बाद होने का सवाल अभी अनुत्तरित है। महंगाई जैसे मुद्दे पर तो बाद में भी लड़ा जा सकता है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें तो फिर कम कराई जा सकती हैं, लेकिन मामले का रुख बदल कर फिर से दोषियों को जमानते देने का सिलसिला रोकने के लिए असर मुद्दे पर कायम रहने की जरूरत है, लेकिन यह अंदर की बात है, वे हमारे साथ हैं। ऐसे में यह नहीं हुआ। मामला अखबारों की सुर्खियों से गायब हो गया। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को लेकर जो लोग जमीन आसमान एक कर रहे थे, उन्होंने यूनियन कार्बाइड मामले में ऐसा कुछ नहीं किया। लाखों परेशान लोग घटना के 25 साल बाद भी न्याय की आस में भटकने को मजबूर हैं। देश के राजनेताओं का रुख नक्सलवाद और कश्मीर की समस्या की तरफ हो चला है। मूल समस्या फिर दब गयी। ऐसा नहीं है कि कश्मीर में अचानक हालात बेकाबू होने की स्थिति थी। घाटी शांति की तरफ बढ़ रही थी। वहां अचानक भूचाल आ गया। यह अचानक कैसे हो सकता है। यदि अचानक नहीं हो सकता, तो भारतीय खुफिया एजेंसियों के इनसर्जेंसी आपरेशन्स संदेह से परे नहीं रखे जा सकते। नक्लसवादी घटनाएं वहां क्यों नहीं जोर पकड़ रहीं, जहां से उन्होंने दोबारा ताकत पायी। सारी हरकतें केवल छत्तीसगढ़ और दंतेवाड़ा इलाके में ही क्यों हो रही हैं। सीआरपीएफ के जवान क्यों मरवाये जा रहे हैं, क्यों नहीं नक्सली स्वैड्स की गुरिल्ला मारक क्षमता से निपटने के प्रशिक्षित दस्ते ही इस मुहिम में लगाये जा रहे। आज भी यह भले कहा जाये कि सेना से मदद ली जायेगी, लेकिन सेना तो बीते छह-सात साल से नक्सली हमले का जवाब देने के लिए जवानों को प्रशिक्षण देने का काम कर रही है। खासतौर से झारखंड में तो घोषित तौर पर सेना ने विशेष दस्तों को नक्सलियों से जूझने के लिए प्रशिक्षित किया है। फिर झारखंड और उड़ीसा के जंगलों से वाकिफ लोगों को ही क्यों नहीं इन दस्तों में भर्ती किया जाता, जिनमें यह जंगल रचा-बसा है, जो पहाड़ी रास्तों से खासे वाकिफ हैं और उन्हें सारे वैकल्पिक मार्ग पता हैं। यही बात कमोबेश कश्मीर पर भी लागू होती है।
लेकिन समस्या का समाधान तो कोई करना नहीं चाहता, क्योंकि ये समस्याएं इनके बड़े काम की हैं। आप स्व. इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल का स्मरण करें, जो बाद की पीढ़ी है, वह इसे संक्षेप में जान ले कि जब-जब देश में कोई बड़ी समस्या उभरती थी, तब-तब अचानक सीमा पर तनाव बढ़ जाता था। पंजाब में आतंकवाद के प्रणेता जत्थेदार भिंडरावाले ने तो एक दौर में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार तक किया था। उन्हें लगातार शह मिलती रही, जो बाद में दोनों के लिए काल बनी। आप वर्ष 2002 में राजग सरकार की लड़ाई की तैयारियों को भी इसी क्रम में देख सकते हैं।
मूल समस्या से जब ध्यान हटाना हो, तो कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें उछाल कर देश का ध्यान बटाने की कोशिश होती है और हम इतने भोले हैं कि हमारा ध्यान बंट भी जाता है। अहम सवाल है कि यूनियन कार्बाइड मामले में राजीव गांधी की भूमिका स्पष्ट होनी ही चाहिए। इस चर्चा हो। दूध का दूध पानी का पानी हो जाये। राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन की छवि पर बार-बार सवाल उठे हैं। कांग्रेस से इस बात का जवाब मांगा जाना चाहिए और सीधे तौर पर उनके कार्यकाल के दौरान जितने घोटाले-घपले हुए, उस पर श्वेत पत्र की भी अपेक्षा की जानी चाहिए, चाहे वह बोफोर्स की दलाली का मामला हो या फिर फेयरफैक्स कांड, यूनियन कार्बाइड के मालिक एंडरसन को छोड़े जाने के मामले में भी यही अपेक्षा की जानी चाहिए। यदि मिस्टर क्लीन वाकई क्लीन थे, तो इन मामलों के दस्तावेज सार्वजनिक किए जाने चाहिए, ताकि जनता स्वयं नीर-क्षीर विवेक से तय कर सके कि मामला क्या है? एक मामले को दबाने के लिए दूसरा उछालने से तो देश की समस्याएं सुलझने वाली नहीं हैं। ये और उलझेंगी। विपक्ष को भी मुद्दे से ध्यान बंटाने वाली कार्रवाई को समझने की कोशिश करते हुए अपना ध्यान उस बड़ी समस्या पर रखना चाहिए, जिससे जनता का व्यापक हित जूड़ा हुआ है।
यह सवाल खड़ा किया जा सकता है कि यूनियन कार्बाइड से पूरे देश की जनता का व्यापक हित कैसे जुड़ा हुआ है। तो यह बात ध्यान देने लायक है कि हम परमाणु बिल पर लगातार इसीलिए तो आपत्ति कर रहे हैं कि इसमें उपकरण बनाने वाली कंपनी की भी जवाबदेही तय होत ताकि कोई चेर्नोबिल जैसी घटना होने पर लोगों की रक्षा करने के अलावा प्रभावित लोगों को उचित क्षतिपूर्ति दिलाई जा सके। चेर्नोबिल दुर्घटना में तकरीबन साढ़े तीन लाख लोक प्रभावित हुए थे और छह हजार से लोगों को ज्यादा नुकसान पहुंचा था। चार हजार लोग रेडिएशन की चपेट में आने से ऊपजे कैंसर से मरे। भोपाल गैस त्रासदी में तो एक सप्ताह में ही सोलह हजार लोग मर गये थे। साढ़े पांच लाख लोग प्रभावित हुए।
पुनर्वास के मामल में प्रभावित लोगों को जिस तरह से दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं, वह न केवल तात्कालिक सत्तासीन लोगों की हृदयहीनता और सत्ता की क्रूरता की पराकाष्ठा है, बल्कि उससे कहीं ज्यादा दोषियों को बचाने की कोशिश तो उससे कहीं ज्यादा बड़ा अपराध है। जो लोग बचाने में जुटे रहे, उन्हें भी इस घटना के लिए उतना ही दोषी माना जाना चाहिए, जितना घटना के लिए जिम्मेदार लोग। नौकरशाहों, न्यायाधीशों, सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोगों के कुकृत्य लोगों के सामने आने चाहिए, क्योंकि क्वात्रोची को जिस तरह से बचाने की कोशिश हो रही है, उसमें सरकार की भूमिका जग जाहिर हो चुकी है। यह उससे बड़ा और जघन्य अपराध है कि क्योंकि यह कुछ लाख की दलाली का मामला नहीं है और बोफोर्स तोप के सौदे को लेकर सवाल उठ सकता है, उसकी गुणवत्ता को लेकर नहीं। यह हजारों लोगों की मौतों के जिम्मेदार लोगों को बचाने का मामला है, यह लाखों प्रभावित लोगों को एक चौथाई दशक से तिल-तिल मरने को मजबूर करने का मामला है। यूनियन कार्बाइड मामले में दोषियों को बचाने वाली केंद्र व राज्य में उस समय सत्तासीन कांग्रेस सरकार की भूमिका अदालत में तय होनी चाहिए। पूरे मामले में ईमानदार नीति यही है कि पीड़ितों को नए सिरे से राहत देने के लिए संसद में प्रस्ताव पारित हो, यदि जरूरत पड़े तो कानून बना कर राहत राशि बढ़ाई जाये, (जैसे शाहबानो केस में किया था।) मुकदमा चलाने के लिए केवल एक मामले के ही क्यों न संविधान में समुचित संशोधन करना पड़े, किया जाये, ताकि दोषियों के बचने की गुंजाइश हमेशा-हमेशा के लिए खत्म की जा सके। ऐसे मामलों में मुआवजा देने के लिए तरीके भी बदले जायें, क्योंकि प्रायः मुआवजे की मांग करने वालों को इतने कानूनी दांव-पेंच में उलझा दिया जाता है कि बहुतेरे प्रभावित होते हुए भी इससे वंचित रह जाते हैं यानी मुआवजा प्रक्रिया सरल की जाये, इसमें ठीक वही तरीका अपनाया जाते, जो कानून सजा संदेह का लाभ देते समय अपनाता है कि भले अपराधी बच जायें, लेकिन कोई निरपराध न सजा पाये। ऐसे मामलों में मुकदमों को अपील की टाइम लाइन से मुक्त किया जाना चाहिए।
जरूरत जन दबाव बढ़ाने की है, क्योंकि बेशर्मी बढ़ती जा रही है, इस मुद्दे पर बने मंत्री समूह ने एंडरसन को भगाने के मामले में राजीव गांधी को क्लीन चिट दे दी है। प्रधानमंत्री को सौंपी गयी रिपोर्ट में मंत्री समूह ने कहा है कि राजीव गांधी को एंडरसन को छोड़े जाने की जानकारी तब हुई, जब वह देश से बाहर जा चुका था और अपने दावे की पुष्टि के लिए समाचार पत्रों में छपी खबरों को आधार बनाया है। वहीं मुआवजा राशि बढ़ाये जाने की सिफारिश भी की है। बेशर्मी की हद यह है कि इस मामले में जस्टिस अहमदी भी झूठ बोल रहे हैं। उन्होंने ही इस मुकदमे में दिसंबर 1996 में दस साल की सजा वाली धारा को तरमीम कर दो साल वाली धारा में मुकदमा चलाने का फैसला दिया था। इस संबंध में उन्होंने कहा था कि कोई समीक्षा याचिका दायर नहीं की गयी थी। अब जब यह तथ्य पुष्ट हो गया है कि समीक्षा याचिका दायर की गयी थी, जिसे उन्होंने ही 10 मार्च 1997 को खारिज किया था। यह याचिका एक एनजीओ ने 1996 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी, जिसमें आग्रह किया गया था कि मुकदमा धारा 304 (भाग दो) के तहत चलाया जाये, जिसमें दस साल तक की सजा का प्रावधान है। जस्टिस अहमदी ने दो दिन पहले ही बयान दिया है कि एक आदमी कह रहा है कि उसने समीक्षा याचिका दायर की थी, ऐसी हजारों समीक्षा याचिकाएं कोर्ट के सामने आती हैं, ऐसे में आप मुझसे कैसे यह उम्मीद करते हैं कि कोई विशेष याचिका उन्हें याद होगी। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी की भी इस मामले में संलिप्तता उजागर हुई है कि उन्होंने ही यूनियन कार्बाइड का अधिग्रहण करने वाली कंपनी डाऊ केमिकल्स को कानूनी सलाह दी थी, जिसमें स्पष्ट था कि डाऊ केमिकल्स यूनियन कार्बाइड के कृत्यों के लिए जिम्मेदार होगी या नहीं। डाऊ केमिकल्स यूनियन कार्बाइड का ही संशोधित संस्करण है, यह बात भी अब उजागर हो चुकी है। मामले में भाजपा इसलिए बैकफुट पर है कि उसने डाऊ केमिकल्स से चंदा लेने में कोई परहेज नहीं किया और प्रत्यक्ष चंदा हासिल किया। यानी अदालत, सत्ता प्रतिष्ठान और राजनैतिक दल सभी हमाम में नंगे हैं। जरूरत है जन चेतना की, ताकि सवाल सही तरीके से उठे।
एक सवाल यह भी है कि मामले को सही तरीके से पऱखना था तो फिर इस पर मंत्रि समूह क्यों गठित हुआ, उच्चाधिकार प्राप्त संसदीय समिति क्यों नहीं बनी, जिसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व रहता।
केंद्र सरकार जिस तरह से दंगों के मामले में प्रभावित लोगों को अधिकार संपन्न करने जा रही है, उसी तरह से इस मामले में भी क्यों नहीं करती, ताकि वे और उनके नुमाइंदे इस मसले पर हो रही प्रत्येक गतिविधि व प्रगति से अवगत होते रहें। केंद्र सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा (निवारण, नियंत्रण एवं पीड़ित पुनर्वास) विधेयक फिर से ड्राफ्ट किया है। पहले यह विधेयक 2005 में संसद में पेश होने वाला था, जिसे वापस ले लिया गया था। संशोधित विधेयक में राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा की स्थिति में केंद्र सरकार को कार्रवाई के असीमित अधिकार का प्रावधान है, जिसे चुनौती ही नहीं दी जा सकती। विधेयक की सबसे खास बात यह है कि अब पीड़ित पक्ष जांच से संबंधित न केवल सभी सूचनाएं प्राप्त कर सकेगा, बल्कि कार्यवाही में भी भाग ले सकेगा।
इस बृहद षडयंत्र से सचेत रहने की जरूरत है, क्योंकि राजीव गांधी को मिस्टर क्लीन बनाये रखने का हर हरबा इस्तेमाल किया जा रहा है, भले ही इसकी कीमत इस देश की जनता को अशांति के रूप में क्यों न चुकानी पड़े और आर्थिक क्षति उठानी पड़े।

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