Menu
blogid : 549 postid : 41

सहमे हुए दिन

अभिव्यक्ति
अभिव्यक्ति
  • 17 Posts
  • 35 Comments

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक राष्ट्रीय पदाधिकारी ने स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद मुझसे बातचीत के दौरान आशंका व्यक्त की कि संभवतः देश फिर आपातकाल की ओर बढ़ेगा। उनका आशय मीडिया को इसके लिए सतर्क करने से था। उनका आकलन था कि ऐसा न भी हुआ तो संघ पर फिर से प्रतिबंध लग सकता है। हाल के घटनाक्रम उनके आकलन के बहुत करीब है। देश में एक अधिनायकवादी व्यवस्था देश के एक राज्य और केंद्र में साफ नजर आ रही है। पहले एक कठपुतली राष्ट्रपति ने देश को एक बड़े संकट में झोंका था और अब एक कठपुतली प्रधानमंत्री। इस देश में इससे बड़ी विडंबना और कुछ नहीं हो सकती कि इस देश का प्रधानमंत्री जनता द्वारा सीधे चुना हुआ न होकर कांग्रेस की कृपा पर उच्च सदन में मनोनीत व्यक्ति है। वह कांग्रेस सुप्रीमो का कृपाजीवी है, जितने दिन उन्हें उसकी जरूरत है, उतने दिन ही वह प्रधानमंत्री है। जैसे गांव में चिड़ियों से खेत की रक्षा के लिए धोख यानी बिजूका लगाया जाता है, वह ठीक वैसा ही है, जो नेहरू गांधी खानदान के खेत को तब तक बचाये रखने के लिए ही है, जब तक फसल पक न जाये, यानी नेहरू-गांधी खानदार का एक रौशन चिराग इस देश कमान न संभाल ले। भले ही उसे इसके लिए कुछ करना पड़े। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। संघ पर प्रतिबंध लगाने की पूरी तैयारी बीते दिनों दिखी। संघ की तीखी प्रतिक्रिया और सीधे मैदान में मोर्चा ले लेने से यह फैसला पीछे हट गया। एक के बाद एक घोटाले में फंसी कांग्रेस यह फैसला अमल में नहीं ला पायी, जो इस देश में आपातकाल की पहली कड़ी होता। हालात उससे कहीं जुदा नहीं हैं। आपातकाल की याद आते ही मैं सिहर उठता हूं। क्योंकि भले बचपन में ही सही मैंने वह त्रासदी देखी है। उस त्रासदी का भुक्तभोगी भी मैं रहा, क्योंकि इमरजेंसी के कहर ने मुझे एक ही साल में दस साल से ज्यादा का कर दिया था। डेढ़ साल वक्त कितना कठिन था, इसे अभिव्यक्त कर पाना जरा मुश्किल है। बाल मन में एक डर था, एक सहम थी। जिस पिता के साथ रात की नींद बिना किसी भय के गहराती थी, उसके दूर चले जाने या फिर कभी न लौट आने की आशंका एक बच्चे के लिए कितनी पीड़ादायक हो सकती है, इसे वही जान सकता है, जिसने इसे भोगा है। वे जेल चले गये होते तो शायद यह उतना कष्टकर न होता, जितनी उनके रोज जेल जाने की आशंका कष्टकारी थी। हर दिन का सवेरा एक भय लेकर आता था, पिता घर से बाहर जाते तो आशंका गहरा जाती, जब लौट कर आते तो सुकून मिलता, लेकिन रात की हर आहट चौकाने वाली होती थी, क्योंकि गिरफ्तारी तो कहीं भी और कभी हो सकती थी। इसके लिए कोई स्थान तो तय था नहीं। हर दिन हर वक्त आशंका और भय में जीवन कितना कठिन था, अब समझ में आता है। तब तो केवल पिता के जेल जाने से उनकी नामौजूदगी में होने वाली कठिनाइयों का आंकलन ही सर्वाधिक पीड़ादायक होता था। स्कूल जाते दो साल का वक्त बीता था। 1975 में मेरी उम्र बमुश्किल सात साल की थी। 71 की तो याद नहीं है, लेकिन यह धुंधली याद जरूर है कि पीला छोटा जहाज आकाश में उड़ता था, फैजाबाद के फ्लाइंग क्लब का। आज मुझे मालूम है कि यह डकोटा था। इस जहाज से कुछ पर्चे गिराये जाते थे 71 में, जिन पर लिखा होता था, भारत के दो दुश्मन जानी, यहया भुट्टो पाकिस्तानी। इस बात का जिक्र इसलिए क्योंकि इसी युद्ध में शानदार जीत के बाद भी चुनाव में सरकारी तंत्र का दुरुपयोग इंदिरा जी को करना पड़ा था। युद्ध में जीत के बाद एक सच सामने था कि महंगाई तेजी से बढ़ी थी और उनका नारा गरीबी हटाओ, गरीबों को भूखों मार डालो में तब्दील हो गया था। शानदार युद्धक जीत के बाद जो कसीदे कढ़े गये थे, वे इमरजेंसी के दौरान कैसे उल्टे पढ़े जाने लगे, इसका जिक्र आगे है। इसलिए चंद सालों के बदले हालात और एक गलत फैसले के असर से आप वाकिफ होंगे। युद्ध के बाद एक अधिनायक वादी व्यवस्था आकार लेने लगी थी, जो आपातकाल के रूप में सामने आयी। तब इंदिरा जी को रणचंडी और दुर्गा की उपाधि से नवाजा गया था। विपक्षी भी उनके कायल हो गये थे, उनकी सामरिक सफलता और कूटनीतिक परिपक्वता के आगे। 1974 के विधानसभा चुनाव की याद है। पिता जी भारतीय जनसंघ के मंच के प्रमुख लोगों से एक होते थे। उनके मित्र वस्त्र व्यवसायी वेद प्रकाश अग्रवाल चुनाव लड़ रहे थे। दीपक का चुनाव चिह्न और क्षत्रिय बोर्डिंग के पोलिंग स्टेशन पर हम सबकी दिन भर की मौजूदगी भर याद है। वेद प्रकाश जी चुनाव जीते, फिर उनकी मौत हो गई। हालांकि तब तक इमरजेंसी लागू हो चुकी थी। पिता जी उनके प्रिंटिंग प्रेस स्वदेश प्रेस तक भी मुझे ले कर जाया करते थे और जन सभाओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में भी। उनकी चर्चाओं से ऐसा आभास होता था कि कुछ बड़ी गड़बड़ होने वाली है। 1971 में तो गड़बड़ पता थी, कि हमला हो रहा है। पाकिस्तान हमला कर चुका है। रात को ब्लैक आउट होता था। डर साफ था। यह गड़बड़ स्पष्ट नहीं थी। आखिर 25 जून 1975 की आधी रात यानी जैसे ही 26 जून की दस्तक हुई, इमरजेंसी लागू हो गई। पिताजी की बातों से इतना भर पता चलता था कि लोग पकड़ कर जेल में ठूंसे जा रहे हैं। पिताजी भी किसी दिन पकड़े जा सकते हैं। पिता जी संघ के कार्यकर्ता थे। विद्यार्थी जीवन से ही उनका संघ से जुड़ाव था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना के समय से उसके सक्रिय सदस्य के रूप में काम किया था और गांधी हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध के दौरान वह उस दस्ते में काम करते थे, जो जेल जाने में नहीं बल्कि गुप्त गतिविधियां संचालित करने का काम करता था। वह छात्र जीवन था, तब बचना आसान था। अब तो परिवार था, निश्चित घर था। वह जिस कालेज में पढ़ाते थे. वहां उनकी ड्यूटी का समय तय था। ऊपर से सरस्वती शिशु मंदिर की दूसरी शाखा जो उनकी ही मेहनत का प्रतिफल थी, उसकी जिम्मेदारी भी उन पर थी। उससे जुड़ी एक जमीन का मुकदमा था। प्रबंधक के नाते मुकदमा लड़ने की जिम्मेदारी उन पर थी। स्कूल तो सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया था। विपक्षी खुश थे, अब कौन लड़ेगा, लेकिन पिता जी लड़ रहे थे। सबने सलाह दी कि छोड़ दो, किसी दिन जेल चले जाओगे तो बाल-बच्चों को कौन देखेगा। शायद सलाह देने वाले यह नहीं जानते थे कि वह सलाह किसे दे रहे हैं। वह सुनते सबकी थे, करते अपने मन की। पहले नगर प्रचारक किशन जी गिरफ्तार हुए, फिर जिला प्रचारक जय प्रकाश चतुर्वेदी (अब भारतीय जनता पार्टी के प्रांत संगठन मंत्री व विधान परिषद सदस्य). भारतीय जनसंघ के जिलाध्यक्ष पं. जगदंबा प्रसाद वैद्य, मधुबन सिंह (बाद में एमएलसी हुए), ठाकुर गुरुदत्त सिंह (हिन्दू महासभा के पूर्व विधायक व पूर्व सिटी मजिस्ट्रेट नहीं), पहले फैजाबाद में तैनात रहे प्रचारक रामशंकर उपाध्याय समेत कई लोग गिरफ्तार हो गये। युवाओं की टोली तो जेल पहुंच ही चुकी थी, जिसमें श्रीभगवान जायसवाल (नव युवक क्रांतिकारी संघ व केंद्रीय दुर्गा पूजा समिति के संस्थापक) , लल्लू सिंह (पांच बार अयोध्या विधानसभा क्षेत्र से विधायक व पूर्व ऊर्जा मंत्री ), अनिल तिवारी (पूर्व राज्य मंत्री) आदि शामिल थे। समाजवादियों की यूथ ब्रिगेड भी जेल में थी। जुझारू नेता श्रीराम द्विवेदी जैसे नेता जेल पहुंच चुके थे। सिलसिला चल रहा था। रोज किसी न किसी की गिरफ्तारी की खबर आती थी। घर में एक ही चर्चा होती थी, इमरजेंसी। इसी बीच आरएसएस का पक्षधर माना जाने वाला अखबार तरुण भारत सीज होने की खबर और संघातिक थी। मीडिया पर यह सीधा हमला था। इन घटनाओं के बीच पिता जी रोज की तरह सुबह उठते, नहाते-धोते और कपड़े पहन कालेज (मनोहर लाल मोती लाल इंटर कालेज) को निकल जाते। वह कामर्स के प्रवक्ता थे। हम लोग सुबह स्कूल चले जाते थे। दोपहर घर लौट कर पिताजी को घर में पाकर खुश होते कि चलो एक दिन और कटा, पिता जी नहीं पकड़े गये। रात-बिरात लोगों का आना-जाना लगा रहता, कौन आता-कौन जाता, यह हम सबको पता नहीं चलता था। पिताजी माध्यमिक शिक्षक संघ के पांडेय गुट के भी पदाधिकारी थे। इस वजह से खासा घालमेल था। हां यह सुकून जरूर था कि भले ही इमरजेंसी में पिता जी के लंबे समय तक नप जाने का भय दिल के अंदर तक पैठा हुआ था, लेकिन उनके आये दिन लखनऊ जाने, जेल जाने और आंदोलन में पुलिस की लाठी का सामना करने का सिलसिला थम गया था, क्योंकि आंदोलन हो ही नहीं सकते थे। नतीजतन शिक्षक आंदोलन भी बंद थे। इसी बीच बीमार बाबा भी गांव गानेपुर (मालीपुर स्टेशन के नजदीक फैजाबाद-वाराणसी मार्ग पर लबे सड़क, अब यह अंबेडकर नगर जिले में है और जिलामुख्यालय से 18 किलोमीटर की दूरी पर है) से इलाज के लिए आ चुके थे। पिता जी निरंतर शिशु मंदिर के मुकदमों की तारीखों पर कचहरी में हाजिर हो रहे थे। बाबा के आने का फर्क इतना था कि वह अचानक आये खर्च को वहन करने के लिए ट्यूशन पढ़ाने लगे थे। कहीं आना-जाना होता नहीं था, सो यह क्रम नियमित हो गया, राजनैतिक गतिविधियां कमरे के अंदर तक सिमट गईं। इन सारे सुकून के बीच हर वक्त लटकती तलवार हमें चैन न लेने देती। पिता के साथ सोने की आदत थी मुझे। मेरे लिए यह सर्वाधिक भयभीत करनेवाली बात थी कि वह जेल चले गये तो मेरा क्या होगा। हम सभी छोटे थे। मैं कक्षा तीन में था और बड़ी बहन हाईस्कूल व छोटी दर्जा आठ में। पता चलता कि जेल में बंद आरएसएस के लोगों के साथ बड़ी तशद्द हो रही है। जय प्रकाश नारायण के गुर्दे खराब होते जा रहे हैं और इलाज मुहैया नहीं कराया जा रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी सहित तमाम नेता जेल में हैं। नेता नहीं तो सुने कौन। अखबार में खबरें नहीं थीं। तरुण भारत बंद हुआ तो स्वतंत्र भारत आने लगा, लेकिन सरकारी न्यूज ही होती थी उसमें। आज अखबार वाराणसी से आता था। लेकिन जब अखबार में छप नहीं सकती थीं तो उनके छपने का फायदा ही क्या था। मेरे घर में दो विचारधाराएं थीं एक कांग्रेसी और दूसरी जनसंघी। मेरा पिता और एक ताऊ जनसंघी यानी आरएसएस समर्थक थे। सबसे बड़े ताऊ और चाचा का परिवार कांग्रेसी। अखबार तीन आते थे। एक नवजीवन बड़े ताऊ के यहां और दूसरा छोटे ताऊ के यहां स्वतंत्र भारत और तीसरा मेरे यहां तरुण भारत। तरुण भारत प्रेस सीज किए जाने के बाद हम लोग भी स्वतंत्र भारत के ही पाठक हो गये। नवजीवन नहीं लिया गया तो नहीं ही लिया गया। चाचा के यहां आज आता था। तब आज बनारस से ही छपता था और बहुत विलंब से आता था। अखबारों पर पहरा था। पढ़ने पढ़ाने का कोई औचित्य था ही नहीं। पिता की दिनचर्या में फर्क नहीं था। हां उनके खुराक आर्गेनाइजर और पांचजन्य भी बंद थे। नतीजतन इस मोर्चे पर घर में शांति थी। इमरजेंसी लगने के कुछ दिन बाद और हंगामा हुआ, जिसने हम लोगों का चैन फिर से छीन लिया। यह था संजय गांधी का पांच सूत्रीय कार्यक्रम का सबसे खतरनाक हिस्सा परिवार नियोजन। नारा आया था परिवार नियोजन घर-घर भोजन। छोटा परिवार-सुखी परिवार। भोजन तो मिला नहीं, महंगाई चरम पर आ गई, लेकिन घर-घर गांव-गांव मुसीबत शुरू हो गई। नौकरी में वेतन पाने के लिए नस कटवाना अनिवार्य हो गया। यहीं से शुरू हुआ मुसीबत का दूसरा दौर। अब पिता की तन्ख्वाह पर मुसीबत थी। आये दिन पता चलता कि किसी अविवाहित को पकड़ कर नसबंदी कर दी, नसबंदी के लिए पकड़े जाने के भय से लोग गन्ने के खेतों में छुप रहे हैं वगैरह-वगैरह। दो मोर्चे थे। एक तो मीसा या डीआईआर में बंदी का खतरा तो दूसरा नसबंदी न कराई तो वेतन न मिलने का। कुछ दिन कटे, लेकिन ज्यादा नहीं कट पाये। मेरे रिश्ते के जीजा (मेरी सबसे बड़ी चचेरी बहन के पति) भी अध्यापक थे और वह भी सहायता प्राप्त विद्यालय में। वे आये दिन यही सलाह देने घऱ आ जाते थे, चाचा नसबंदी करवाय के फुर्सत करो, सिद्धांत बघारै से कुछ न मिले। पिता जी के सामने तो सिद्धांत भी था और संकट भी। मां इस बात के लिए तैयार नहीं थीं। आखिर बधिया कौन होना चाहेगा। वह भी पुराने ख्याल के लोग। बचपन में ही इस विवाद की बलि चढ़ा मैं। मैं पढ़ता था शिशु मंदिर में औऱ पिता जी उसके प्रबंधक थे। सरकारी करण हो जाने से भले ही उनका सीधा दखल नहीं चल रहा था, लेकिन कागज-पत्र पर तो वे प्रबंधक थे ही। सबको मामूल था कि इमरजेंसी एक न एक दिन खत्म होगी। तब तो इनसे ही पाला पड़ना है। नतीजतन नसबंदी से भले ही नस न कटी हो, लेकिन मेरी उम्र जरूर बढ़ गई। नियम था कि यदि सबसे छोटी संतान की उम्र दस साल से अधिक हो तो नसबंदी कराने की जरूरत नहीं होगी। लिहाजा मेरी उम्र स्कूल के अभिलेखों में डेढ़ साल बढ़ा दी गई। पिता के वेतन पर लटकती तलवार तो हट गई, लेकिन महंगाई के मारे जीना मुहाल हो गया। इस महंगाई को लेकर जो स्वर उठने चाहिए थे, उठ नहीं रहे थे। हां यह नारा जरूर चल रहा था खेत गया चकबंदी में, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरते चिल्लाएं मर्द गया नसबंदी में। चीनी का भाव आसमान छू रहा था। भला हो तब के जमाने का कि गुड़ सस्ता था। नतीजतन सहमे हुए दिन गुड की चाय पी कर गुजरने लगे। हर दिन जब पिता घर लौटते तो हम लोगों को चैन आ जाता कि चलो एक दिन और बीता। लेकिन हर खटके पर यह खटका लगा ही रहता था कि कहीं पुलिस घर ही पकड़ने न आ जाये। यह आज तक रहस्य ही है कि मेरे पिता क्यों नहीं गिरफ्तार हुए। हालांकि उनकी यह टिप्पणी बाद में मेरे जीवन का भी सूत्र बनी कि जेल चला जाता तो भले ही नाम हो जाता, लेकिन नाम से ज्यादा जरूरी काम था। जो जेल नहीं जाना चाहता, उसे कोई जेल नहीं भेज सकता। संभवतः उन्होंने दूसरी बार आरएसएस के भूमिगत आंदोलन की कमान संभाली थी और उसे बखूबी निभाया। हम लोगों को नारा याद करा रखा था खा गई शक्कर पी गई तेल, ये देखो इंदिरा का खेल, भूखे बच्चे करें पुकार, बदलो-बदलो ये सरकार। संभवतः यह कविता निर्भय हाथरसी ने लिखी थी और नारे की तरह प्रचलित थी। इसी तरह से उनकी कविता इंदिरा मइया रोटी दे, छोटी दे या मोटी दे भी खासी चर्चित रही। गली गली में चाकू है, इंदिरा गांधी डाकू है। कटी चवन्नी तेल में, इंदिरा गांधी जेल में। ये नारे भी बुलंद होते थे। बच्चा पार्टी इसे दोहराती तो लोग कहते थे, पुलिस पकड़ ले जायेगी। मेरा घर भूमिगत कार्यकर्ताओं का केंद्र था। कौन आता था, कौन जाता था, पता नहीं, लेकिन चूल्हा और अंगीठी फूंकती मेरी मां की झुंझलाहट जरूर खाने में मिश्रित हो जाती थी। दो लोग बताये जाते, तीन आ जाते या चार। मां कहतीं, सही ही बता देते। कम से कम ठीक से खाना तो खिला देती। भला हो रसोई गैस का, 1976 में फैजाबाद शहर में एजेंसी खुली और हमारे घर में गैस का चूल्हा जलने लगा। झुंझलाहट खत्म हुई, लेकिन संख्या वाली समस्या तो जस की तस थी। गुड़ की चाय का संकट तो अभी बताया नहीं, गुड़ में थोड़ी खटास हुई तो दूध फट जाता था। फिर चाय कपड़े से छान कर किसी तरह पी जाती थी। आज का जमाना होता तो गुड़ की चाय भी पीना मुहाल हो जाता, क्योंकि गुड़ भी चीन के बराबर के दाम पर बिक रहा है। चीनी तो गांव-गांव मिल जाती है, गुड़ तो शहर में किसी-किसी दुकान पर ही मिलता है। इन खतरों के बीच में बीमार बाबा की तीमारदारी का जिम्मा हम लोगों पर था। वे मीठे के शौकीन थे। टमाटर की मीठी चटनी, चाशनी जैसी चाय उनकी पसंद थी। इमरजेंसी के दौर में मिट्टी के तेल की भी कालाबाजारी कम नहीं थी। पंप वाला स्टोव बाबा के लिए संरक्षित था, तो इमरजेंसी के लिए बत्ती वाला स्टोव। बत्ती वाला स्टोव हम लोग जला लेते थे, लेकिन पंप वाले स्टोव को जलाने की इजाजत नहीं थी। पिता की कमर इस खर्च से टूट रही थी। तन्ख्वाह आधे महीने भर की होती थी। महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही थी। दूसरी तरफ इंदिरा जी के बीस सूत्रीय कार्यक्रम और गरीबी हटाओ के नारे थे। सचमुच उस दौर में भूख से मौत के आंकड़े अखबारों में छपने पाते तो गरीबी हटाओ के नारे का सच गरीब मिटाओ के रूप में ही सामने आता। दिन गुजरते गये। समय बीतता गया। ऐसा लग रहा था कि इमरजेंसी कभी खत्म नहीं होगी और भारत एक डिक्टेटरशिप स्टेट के रूप में तब्दील हो जायेगा। लेकिन 1976 के अंत में एक आशा की किरण फूटने लगी थी। जो बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गणगीतों में नजर आया, गहन रात बीती मिटा घन अंधेरा, नवल ज्योति फूटी सबेरा हुआ, ऊषा ने पहन लिया है नया ताज देखो, भिखारिन बनी यामिनी जा चुकी है। भिखारिन और यामिनी के प्रतिमान स्वतः ही समझे जा सकते हैं कि किसके लिए प्रयुक्त किए गये। हालात जुदा नहीं हैं। अभी हम चीनी का भाव पचासा तक पहुंचा देख चुके हैं। प्याज रुला चुकी है और पेट्रोलियम पदार्थों व रसोई गैस के दाम दिनबदिन बढ़ते जा रहे हैं। भ्रष्टाचार चरम पर है। कानून-व्यवस्था का कोई पुरसाहाल नहीं है। नारों में केवल थोड़ी तब्दीली की जरूरत है खा गई शक्कर पी गई तेल, ये देखो सोनिया का खेल, भूखे बच्चे करें पुकार, बदलो-बदलो ये सरकार। ———————-

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply to Asheesh DubeCancel reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh